जमीन के बाजार मूल्य से दोगुना हो गया कलेक्टर गाइडलाइन रेट
रायपुर. पिछले पांच साल से राजधानी में रियल एस्टेट भले ही मंदी के दौर से गुजर रहा हो, लेकिन जमीन की सरकारी कीमत यानी कलेक्टर गाइडलाइन रेट तय करने के मामले में जिला प्रशासन के सामने मंदी जैसी कोई मजबूरी नहीं है। हर साल प्रमुख इलाकों में कलेक्टर गाइडलाइन रेट बिना किसी जांच-पड़ताल के 18 से 25 फीसदी तक बढ़ा दिए गए हैं। शहर में डेढ़ दर्जन ऐसे वार्ड हैं, जहां जमीन का बाजार मूल्य कम है, कलेक्टर रेट उससे दो-तीन गुना ज्यादा कर दिया गया है। आम आदमी इससे इसलिए हलाकान है क्योंकि प्रमुख इलाकों में किसी तरह जमीन तो खरीद लेता है, लेकिन कलेक्टर गाइड लाइन रेट से रजिस्ट्री कराने में उसकी कमर टूट रही है।
कलेक्टर गाइड लाइन तय करने वाली जिला मूल्यांकन समिति के अध्यक्ष कलेक्टर होते हैं। इस समिति के पास अब तक सरकारी और बाजार मूल्य में आनुपातिक संशोधन का सुझाव नहीं आया है। जानकारों का दावा है कि प्रशासनिक अफसर गाइडलाइन रेट तय करने से पहले यह पता लगाने की कोशिश ही नहीं करते कि संबंधित इलाकों में जमीन की कीमत क्या है? उनका लक्ष्य केवल रजिस्ट्री से राजस्व बढ़ाना है। यही वजह है बाजार मूल्य क्या है कि जमीन का कलेक्टर गाइडलाइन रेट और बाजार मूल्य में बड़ा अंतर रहने लगा है।
ऐसे बढ़ाया कलेक्टर रेट
वार्ड/क्षेत्र 2012-13 2013-14
टाटीबंध चौक से खारुन पुल तक 1394 1812
टाटीबंध से रिंग रोड-2 तक 836 1672
रामकृष्ण परमहंस वार्ड मेन रोड 2323 2788
सिंगापुर सिटी 1858 1971
बरसाना इन्क्लेव 1394 1690
नीलम होम्स/कृष्णा बिल्डर्स 743 938
पिकाडली होटल से रेलवे क्रासिंग 1765 2510
कोटा में श्रीजी टावर्स/मारुति विहार 1115 1407
टाटीबंध चौक से पिकाडली होटल 1765 2510
आरके मॉल 8828 9758
(कीमत प्रति वर्गफीट रुपए में, कलेक्टर गाइड लाइन के अनुसार)
यहां दोगुना कलेक्टर रेट
2013-14 की कलेक्टर गाइड लाइन जारी होने के साथ ही जयस्तंभ चौक, कोतवाली चौक, देवेंद्रनगर, डीडी नगर, शंकरनगर, मौदहापारा, बैजनाथपारा, अवंति विहार, रामसागरपारा, एमजी रोड, सदरबाजार, मालवीय रोड, फाफाडीह, खम्हारडीह, सेजबहार, डूंडा, मुजगहन, बोरियाकला, माना, टेमरी आदि जगहों पर कलेक्टर गाइडलाइन रेट बाजार मूल्य से अधिक हो गया है। इसके बावजूद, प्रशासन इस साल भी गाइड लाइन रेट बढ़ाने में जुट गया है।
सस्ते मकान हुए महंगे
आउटर की जमीन की कीमत बढ़ी है और कलेक्टर गाइडलाइन रेट भी। सेजबहार, सड्डू, मोवा, कचना, संतोषी नगर, पचपेड़ीनाका, रिंग रोड, मठपुरैना, भाठागांव, कुम्हारपारा, शीतलापारा, ट्रांसपोर्टनगर, सरोना, बीरगांव, चंदनीडीह, तरुण नगर आदि स्थानों पर जमीन का बाजार मूल्य उतना नहीं है। रजिस्ट्री होने पर कलेक्टर रेट की वजह से सात-आठ लाख रुपए का मकान 10 लाख रु. से ऊपर हो गया है।
ऐसे बढ़ता है बोझ
किसी भी जमीन की रजिस्ट्री पर स्टांप ड्यूटी साढ़े 5 फीसदी अदा करनी पड़ती है। महिलाओं को इसमें कुछ छूट है। रजिस्ट्री के दौरान एक प्रतिशत पंचायत उपकर और एक प्रतिशत निगम ड्यूटी भी अदा करनी होती है। मिसाल के तौर पर, अगर कोई जमीन दस लाख रुपए में खरीदी गई और गाइडलाइन रेट बाजार मूल्य के बराबर है, तब भी रजिस्ट्री में लोगों को कुल मूल्य का लगभग 10 फीसदी (एक लाख रुपए न्यूनतम) अदा करना ही पड़ता है।
ऐसे बढ़ाते हैं कीमत
जानकारों के मुताबिक गाइडलाइन रेट तय करने के कई मापदंड हैं, लेकिन यह तात्कालिक प्रभाव के आधार पर बढ़ाई जा रही है। जैसे, अभी कमल विहार और टाटीबंध में एम्स के आसपास का इलाका प्राइम लोकेशन बन गया है। अफसरों ने इस आधार पर कलेक्टर गाइडलाइन रेट भी बेतहाशा बढ़ा दिया है, ताकि लोगों पर रजिस्ट्री खर्च के रूप में दोगुना बोझ डालकर आमदनी का टारगेट पूरा किया जाए।
टाटीबंध से रिंग रोड-2 तक जमीन का गाइडलाइन रेट पिछले साल 836 रुपए प्रति वर्गफीट था। नई कलेक्टर गाइडलाइन में यह रेट बढ़कर 1672 रुपए हो गया है। इसी तरह, पिकाडली होटल से रेलवे क्रासिंग तक जमीन का कलेक्टर रेट 1765 से बढ़कर 2510 रुपए वर्गफीट हो गया है। एम्स की वजह से वीर सावरकर नगर, रामकृष्ण परमहंस वार्ड, शहीद मनमोहन सिंह वार्ड और शहीद भगत सिंह वार्ड में मेन रोड पर कलेक्टर गाइडलाइन बाजार मूल्य क्या है रेट तीन साल में सौ फीसदी (दोगुना) कर दिया गया है।
शुद्ध संपत्ति मूल्य (एनएवी) क्या है?
यदि हम एक सेब की कीमत 10 रुपये लेते हैं और इसे 5 टुकड़ों में काटते बाजार मूल्य क्या है हैं, तो सेब की प्रति यूनिट कीमत 2 रुपये हो जाएगी या दूसरे शब्दों में कहें तो सेब की कीमत 2 रुपये होगी। म्यूचुअल फंड्स की दुनिया में, एक फंड हाउस गणना बाजार मूल्य क्या है करता है
शुद्ध संपत्ति मूल्य = (एयूएम) / (योजना की इकाइयों की संख्या)।
एनएवी वह मूल्य है जिस पर एक निवेशक किसी फंड की एक इकाई खरीद सकता है या किसी विशेष दिन में एक यूनिट भुना सकता है। एनएवी दैनिक रूप से उन परिसंपत्तियों के बाजार मूल्य में परिवर्तन करता है जो म्यूचुअल फंड के पास दैनिक आधार पर उतार-चढ़ाव होते हैं।
मूल्य का सिद्धांत क्या है? | Theory of Price meaning in Hindi
मूल्य का सिद्धांत का अर्थ | Meaning of Theory of Price
मूल्य का सिद्धांत एक आर्थिक सिद्धांत है जो बताता है कि किसी भी विशिष्ट अच्छा या सेवा के लिए मूल्य इसकी आपूर्ति और मांग के बीच के रिश्ते पर आधारित है। मूल्य का सिद्धांत बताता है कि वह बिंदु जिस पर इकाई की मांग करने वालों से प्राप्त लाभ विक्रेता की सीमांत लागत को पूरा करता है, उस अच्छे या सेवा के लिए सबसे इष्टतम बाजार मूल्य है।
प्रमुख बिंदु (Key Points)
- मूल्य का सिद्धांत एक आर्थिक सिद्धांत है जो बताता है कि किसी भी विशिष्ट अच्छा या सेवा के लिए मूल्य इसकी आपूर्ति और मांग के बीच के रिश्ते पर आधारित है।
- इष्टतम बाजार मूल्य, या संतुलन, वह बिंदु है जिस पर उपलब्ध वस्तुओं की कुल संख्या संभावित ग्राहकों द्वारा यथोचित खपत की जा सकती है।
- कच्चे माल की उपलब्धता से आपूर्ति प्रभावित हो सकती है; प्रतियोगी उत्पादों, किसी वस्तु के कथित मूल्य, या उपभोक्ता बाजार के लिए उसकी सामर्थ्य के आधार पर मांग में उतार-चढ़ाव हो सकता है।
मूल्य के सिद्धांत को समझना
मूल्य-सिद्धांत को "मूल्य सिद्धांत" भी कहा जाता है-एक सूक्ष्म आर्थिक सिद्धांत जो आपूर्ति की अवधारणा का उपयोग करता है और किसी दिए गए अच्छे या सेवा के लिए उचित मूल्य बिंदु निर्धारित करने की मांग करता है। लक्ष्य संतुलन प्राप्त करना है जहां प्रदान की गई वस्तुओं या सेवाओं की मात्रा संबंधित बाजार की मांग और अच्छी या सेवा प्राप्त करने की क्षमता से मेल खाती है। मूल्य सिद्धांत की अवधारणा मूल्य समायोजन के लिए अनुमति देती है क्योंकि बाजार की स्थिति बदलती है।
मूल्य सिद्धांत को आपूर्ति और मांग का संबंध ( Relation of supply and demand to price theory)
आपूर्ति उन उत्पादों या सेवाओं की संख्या को दर्शाता है जो बाजार प्रदान कर सकता है। इसमें दोनों मूर्त सामान शामिल हैं, जैसे ऑटोमोबाइल, और अमूर्त सामान, जैसे कि एक कुशल सेवा प्रदाता के साथ नियुक्ति करने की क्षमता। प्रत्येक उदाहरण में, उपलब्ध आपूर्ति प्रकृति में परिमित है। केवल कुछ निश्चित ऑटोमोबाइल उपलब्ध हैं और किसी भी समय केवल एक निश्चित संख्या में नियुक्तियाँ उपलब्ध हैं।
मांग मूर्त या अमूर्त वस्तुओं के बाजार मूल्य क्या है लिए बाजार की इच्छा पर लागू होती है। किसी भी समय, संभावित उपभोक्ताओं की केवल एक सीमित संख्या उपलब्ध है। विभिन्न प्रकार के कारकों के आधार पर मांग में उतार-चढ़ाव हो सकता है, जैसे कि किसी उत्पाद का बेहतर संस्करण उपलब्ध है या यदि किसी सेवा की आवश्यकता नहीं है। उपभोक्ता बाजार द्वारा किसी वस्तु के कथित मूल्य से मांग को भी प्रभावित किया जा सकता है।
संतुलन तब होता है जब उपलब्ध वस्तुओं की कुल संख्या - आपूर्ति-का उपभोग संभावित ग्राहकों द्वारा किया जाता है। यदि कोई कीमत बहुत अधिक है, तो ग्राहक सामान या सेवाओं से बच सकते हैं। इसके परिणामस्वरूप अतिरिक्त आपूर्ति होगी। इसके विपरीत, यदि कोई कीमत बहुत कम है, तो उपलब्ध आपूर्ति से मांग काफी कम हो सकती है। अर्थशास्त्री बिक्री सिद्धांत को खोजने के लिए मूल्य सिद्धांत का उपयोग करते हैं जो आपूर्ति और मांग को यथासंभव संतुलन के करीब लाता है।
मूल्य के सिद्धांत का उदाहरण (Example of value theory)
फ़र्म्स अक्सर अपनी उत्पाद लाइनों को क्षैतिज रूप से भिन्न करते हैं, बजाय क्षैतिज रूप से, उपभोक्ताओं की गुणवत्ता के लिए भुगतान करने के लिए अंतर की इच्छा पर विचार करते हैं। Drexel University के Michaela Draganska और INSEAD के Dipak C. Jain के शोध के साथ Marketing Science में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, कई फर्म ऐसे उत्पाद पेश करती हैं जो विशेषताओं में भिन्न होते हैं, जैसे रंग या स्वाद, लेकिन गुणवत्ता में भिन्न नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, Apple, Inc. विभिन्न कीमतों और क्षमताओं के साथ अलग मैकबुक प्रो मॉडल प्रदान करता है। प्रत्येक लैपटॉप कंप्यूटर भी विभिन्न रंगों में आता है जो एक ही कीमत के होते हैं। अध्ययन में पाया गया कि एक उत्पाद लाइन में सभी उत्पादों के लिए एक समान मूल्य का उपयोग करना सबसे अच्छी मूल्य निर्धारण नीति है। उदाहरण के लिए, अगर Apple ने सिल्वर मैकबुक प्रो बनाम स्पेस ग्रे मैकबुक प्रो के लिए अधिक कीमत वसूल की, तो सिल्वर मॉडल की मांग घट सकती है और सिल्वर मॉडल की आपूर्ति बढ़ जाएगी। उस समय, Apple को उस मॉडल की कीमत कम करने के लिए मजबूर किया जा सकता है।
मूल्य का सिद्धांत क्या है? | Theory of Price meaning in Hindi Reviewed by Thakur Lal on जून 06, 2020 Rating: 5
फर्म के मूल्यांकन की अवधारणा - concept of firm valuation
फर्म के मूल्यांकन की अवधारणा - concept of firm valuation
कई स्थितियों में, फर्म के मूल्यांकन की आवश्यकता होती है। फर्म का पुनर्निर्माण करना हो, उसकी ख्याति ज्ञात करनी हो, उसका मूल्य जानना हो, फर्मों का संविलयन, एकीकरण या अधिग्रहण करना हो, आदि परिस्थितियों में फर्म का मूल्यांकन करना आवश्यक हो जाता है।
फर्म का मूल्य, उसकी अर्जन क्षमता पर ही नहीं अपितु उसके संचालन तथा वित्तीय स्थितियों पर निर्भर करता है। साथ ही, फर्म के मूल्य पर गुणात्मक (Qualitative) तथा परिमाणात्मक (Qualitative) घटकों का भी प्रभाव पड़ता है। गुणात्मक पहलू, प्रबंधकीय कौशल, योग्यता, अनुभव आदि, विक्रय के स्टाफ के सुदृढ़ होने से तथा उत्पादन विभाग के उत्कृष्ट होने से संबंधित है। इसका मूल्यांकन आसानी से नहीं किया जाता जबकि सभी मात्रात्मक पहलुओं का मुल्यांकन आसानी से किया हा सकता है।
मूल्य का तात्पर्य
फर्म के मूल्यांकन के अंतर्गत उसके विभिन्न संपत्तियों का मूल्य ज्ञात करना होता है। मूल्य कई प्रकार के हो सकते हैं। अत: मूल्य के विभिन्न प्रकारों की जानकारी आवश्यक है।
(1) पुस्तक मूल्य - पुस्तक मूल्य का तात्पर्य, फर्म की पुस्तकों में दिखाई गई मूल्यों से है। दूसरे शब्दों में, आर्थिक चिट्ठे में, संपत्तियाँ जिन मूल्यों पर दिखाई जाती हैं वही उनका पुस्तक मूल्य है। व्यवहार में तथा लेखांकन अवधारणा के तहत संपत्तियों का मूल्य उनके ऐतिहासिक लागत मूल्य पर निर्भर करता है तथा उन्हें उनके बाजार मूल्य पर नहीं दिखाया जाता है।
फर्म के पुस्त मूल्य के अनुसार, उसका मूल्य ज्ञात बाजार मूल्य क्या है करने के लिए, चिट्टे में दी गई अंशधारियों के अंशों के मूल्य को आधार बानया जाता है। इसके अनुसार,
फर्म के शुद्ध मूल्य (Net Value) को समता अंशों की संख्या में भाग देकर उसका मूल्य ज्ञात किया जाता है। सूत्र के रूप में,
फर्म का मूल्य = शुद्ध मूल्य / समता अंशों की संख्या
पुस्त मूल्य विधि की कमी यह है कि यह मूल्य आर्थिक चिट्ठे में दिखाई गई संपत्तियों के ऐतिहासिक लागत (Historical Coat) पर आधारित होती है। ऐतिहासिक लागत का न तो फर्म की अर्जन क्षमता से ( earning capacity) और न ही फर्म के मूल्य से संबंध होता है। इस सीमा के होते हुए भी, फर्म के मूल्यांकन की यह विधि निम्नलिखित कारणों से उपयुक्त मानी जाती है:
1. विश्लेषण की दृष्टि से, पुस्त मूल्य से ही गणना करना अधिक सुलभ व सुसंगत होता है।
2. ऐसी फर्म के लिये, जिसमें बड़ी मात्रा में स्थायी संपत्तियाँ प्रयोग में लाई जाती हैं, पुस्त मूल्य अधिक उपयुक्त है। विशेष रूप से उस स्थिति में जब कि ये स्थायी संपत्तियाँ नई हो।
3. फर्म की कार्यशील पूँजी की जानकारी प्राप्त करने के लिए, पुस्त मूल्य का प्रयोग करना अधिक उचित है।
(2) बाजार मूल्य - व्यवहार में, फर्म के मूल्यांकन के लिये बाजार मूल्य को प्राय: आधार बनाया जाता है। यहाँ पर बाजार मूल्य का तात्पर्य स्टॉक मार्केट में अंशों के निर्धारित मूल्य से है। इसे फर्म का अधिक उचित शुद्ध मूल्य माना जा सकता है क्योंकि यह मूल्य विनियोजकों द्वारा फर्म के अर्जन तथा उसमें निहित जोखिम के आधार पर, निर्धारित किया जाता है। इस प्रकार से, बाजार मूल्य विनियोग तथा सट्टे संबंधी घटकों से निर्धारित होता है। यह बाजार में फर्म के विषय में किये गये विश्लेषणों पर भी आधारित होता है।
इस विधि में भी कमी है क्योंकि सट्टे पर आधारित होने के कारण इसमें उच्चवचन अधिक हो सकता है। फिर भी, यह फर्म के मूल्यांकन में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। व्यवहार में, फर्म के क्रेता, फर्म के मालिकों को बाजार मूल्य क्या है बेचने के लिये प्रेरित करने के लिये, बाजार मूल्य से कुछ अधिक मूल्य देने को तैयार हो सकते है।
(3) निर्धारित मूल्य – किसी स्वतंत्र एजेंसी द्वारा फर्म के मूल्य की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। स्वतंत्र एजेंसी विभिन्न घटकों को ध्यान में रखकर फर्म का मूल्य निर्धारित करती है। इस निर्धारित मूल्य को ही फर्म का मूल्य माना जाता है। यह मूल्य, सामान्यत: संपत्तियों के प्रतिस्थापन मूल्य ( Replacement Value) पर आधारित है। प्रतिस्थापन मूल्य का तात्पर्य उस मूल्य से है जिस पर संपत्तियों को प्रतिस्थापित किया जा सके। इस मूल्य को भी, व्यवहार में, अधिक अपनाया जाता है क्योंकि इसके निम्नलिखित लाभ है-
1. स्वतंत्र एजेंसी, फर्म का मूल्य ज्ञात करने के लिए विभिन्न घटकों का विश्लेषण करती है।
2. स्वतंत्र एजेंसी, फर्म की शक्ति तथा दुर्बलताओं को भी मूल्य निर्धारण करते समय ध्यान में रखती है।
3. संपत्तियों के प्रतिस्थापन मूल्य को अपनाना, कुछ विशेष दशाओं में, जैसे- वित्तीय संस्थाओं के लिये, प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन करने वाली फर्मों के लिये, अधिक उपयुक्त है।
वैसे तो, इस विधि का अपनाना उपयोगी है किंतु इस विधि के साथ अन्य घटकों पर भी ध्यान देकर ही मूल्य निर्धारित किया जातना चाहिए।
(4) प्रति अंश अर्जन – फर्म के मूल्यांकन के लिये प्रति अंश अर्जन को भी आधार बनाया जा सकता है। वास्तव में, यदि फर्म का क्रय किया जाना हो या संविलयन होना हो तो यह देखना चाहिए कि क्रय अथवा संविलयन के पश्चात् उस फर्म की प्रति अंश अर्जन पर क्या प्रभाव पड़ेगा। यह अर्जन बढ़ेगी। यदि उसके पश्चात्, फर्म का अर्जन बढ़ता है तो यह अधिक उचित बाजार मूल्य क्या है बाजार मूल्य क्या है होगा कि उसी को आधार बनाकर फर्म का मूल्यांकन किया जाये। यदि विक्रेता फर्म की प्रति अंश अर्जन घटाती है तो वह अधिक उचित न होगा तथा ऐसे फर्म का क्रय करना लाभप्रद नहीं होगा।
आर्थिक बाजार, बाजार, मांग, मांग का नियम, बाजार के प्रकार
आर्थिक बाजार क्या होता है, मार्केट कितने प्रकार के होते है, आर्थिक बाजार की परिभाषा प्रकार, बाजार के प्रकारों को स्पष्ट कीजिए, एकाधिकार बाजार क्या है, अल्पाधिकार बाजार क्या है, प्रतिस्पर्धी बाजार क्या है, मांग क्या है, मांग का नियम, आदि प्रश्नों के उत्तर यहाँ दिए गए हैं, UPSC, PCS notes in Hindi-
Table of Contents
आर्थिक बाजार
बाजार (Market)
बाजार से तात्पर्य अर्थव्यवस्था का वो विशेष क्षेत्र है, जहां मुख्य रूप से मांग एवं पूर्ति के कारक काम करते हैं तथा क्रय-विक्रय की गतिविधियाँ निष्पादित की जाती हैं। आर्थिक बाजार को समझने के लिए मांग एवं पूर्ति को जानना आवश्यक है।
मांग (Demand)
मांग क्रेताओं या खरीदने वालों द्वारा बनायी जाती है।
मांग का नियम (law of demand)
मांग का नियम यह कहता है कि यदि बाजार के अन्य सभी पहलुओं को स्थिर रखा जाए तो कीमतों के गिरने पर मांग बढ़ने लगती है।
मांग वक्र (Demand Curve)
मांग वक्र क्रेताओं के व्यवहार पर निर्भर करता है। नीचे चित्र में मांग वक्र को दर्शाया गया है। इसमें दो बिन्दुओं A 1 तथा A 2 बाजार की दो भिन्न स्थितियों को बताते हैं।
बिन्दु A 1 – जैसा की ग्राफ में देखा जा सकता है कि बिन्दु A 1 पर बाजार मूल्य गिरते ही बाजार में मांग की मात्रा बढ़ जाती है। उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य गिर जाने के कारण आवश्यकता न होने पर भी उन्हें खरीदने का मन बनाते हैं।
बिन्दु A2- जैसा की ग्राफ में देखा जा सकता है कि बिन्दु A2 पर बाजार मूल्य बढ़ते ही बाजार में मांग की मात्रा घट जाती है। उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य बढ़ जाने के कारण खरीदारी न करने का मन बनाते है।
पूर्ति (Supply)
क्रेताओं (Buyers) द्वारा बनायी गयी मांग, विक्रेता या बेचने वालों द्वारा पूरी की जाती है।
पूर्ति का नियम- यह नियम यह कहता है कि यदि बाजार के अन्य सभी पहलुओं को स्थिर रखा जाए तो पूर्ति एवं मूल्य में धनात्मक सम्बन्ध होता है, अर्थात यदि किसी वस्तु का मूल्य बढ़ता जाए तो उस वस्तु की पूर्ति/उपलब्धता भी बढ़ती जाएगी।
पूर्ति वक्र (Supply Curve)
पूर्ति वक्र विक्रेताओं के व्यवहार पर निर्भर करता है। जिस समय विक्रेता को अधिक मूल्य प्राप्त हो रहा हो उस समय विक्रेता पूर्ति को बढ़ा देता है परन्तु यदि विक्रेता को कम मूल्य प्राप्त हो तो वह वस्तुओं की पूर्ति को कम कर देता है। नीचे ग्राफ में पूर्ति वक्र को दर्शाया गया है। इसमें दो बिन्दुओं A 1 तथा A 2 जोकि बाजार की दो भिन्न स्थितियों को बताते हैं परन्तु दोनों की स्थितियों में पूर्ति एवं बाजार मूल्य में धनात्मक सम्बन्ध है।
बाजार वक्र (Market Curve)
बाजार वक्र, किसी भी समय बाजार में मांग व पूर्ति पर निर्भर करता है। अतः बाजार मूल्य, मांग एवं पूर्ति के हिसाब से बदलती है।
उपरोक्त ग्राफ से हम निम्न निष्कर्ष निकाल सकते है –
- जब मांग ज्यादा तब बाजार मूल्य ज्यादा – मांग बाजार ∝ मूल्य (अनुक्रमानुपाती)
उदाहरण- अगर बाजार में किसी भी वस्तु की मांग एकाएक बढ़ जाए तो उस वस्तु की कीमत भी बढ़ने लगेगी।
- जब पूर्ति ज्यादा तब बाजार मूल्य कम – पूर्ति ∝ 1/बाजार मूल्य (वक्रानुपाती)
उदाहरण- यदि बाजार में किसी भी वस्तु की पूर्ति एकाएक अधिक मात्रा में होने लगे जैसे टमाटर तो उस वस्तु की कीमत भी कम होने लगेगी।
अतः हम यह कह सकते हैं कि बाजार वह काल्पनिक स्थान है जहां मांग व पूर्ति के कारण क्रेता एवं विक्रेता एक दूसरे के साथ सौदे बाजी करते हैं और सौदे बाजी करके एक नियत मूल्य पर सौदा तय करते हैं, इसी मूल्य को बाजार मूल्य कहा जाता है।
बाजार के प्रकार (Type of Market)
1. एकाधिकार बाजार (Monopoly Market)
इस तरह के बाजार में केवल एक ही पूर्तिकर्ता होता है। एसी स्थिति में पूर्ति कम तथा मांग ज्यादा होती है। एकाधिकार बाजार में विक्रेता को अधिक फायदा होता है तथा उपभोक्ता के पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता। 1990 के पहले भारत में कुछ इसी तरह की बाजार प्रणाली थी।
2. अल्पाधिकार बाजार (Duopoly Market)
यह बाजार एकाधिकार की तरह ही है बस इसमें फर्क यह है कि इसमें एक से अधिक पूर्तिकर्ता होता है। इसे सीमित पूर्तिकर्ता बाजार भी कहा जाता है।
3. प्रतिस्पर्धी बाजार (Competitive Market)
इस तरह के बाजार में पूर्तिकर्ता एवं उपभोक्ता दोनों ही बहुल मात्रा में होते हैं। जब कई पूर्तिकर्ता बाजार में उपस्थित होते हैं तब उपभोक्ता के पास कई विकल्प रहते है, जिससे की उपभोक्ता का अधिक फायदा होता है।
कई बार पूर्तिकर्ता आपस में मिलकर समझौता करके बाजार में एकाधिकार बनाने का प्रयास करते हैं। जिससे उपभोक्ता/क्रेता नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। ऐसे समझौते को कार्टेल समझौते के नाम से जाना जाता है –
कार्टेल समझौता (Cartel Agreement)
जब तीनों बाजार मिलकर आपस में समझौता कर लें, जिससे कि बाजार में एकाधिकार जैसी स्थिति उत्पन्न होने लगे। आसान शब्दों में इसमें बहुत सारी कम्पनियां समझौता करके उत्पाद या सेवा (Product & Services) की एक ही कीमत को तय कर लेती हैं।
उदाहरण- OPEC (Organisation of बाजार मूल्य क्या है बाजार मूल्य क्या है Petroleum Exporting Countries) के सदस्य देश आपस में तेल की कीमत तय कर लेते हैं।
भारत में ऐसे समझौतों को रोकने के लिए MRTP (Monopolistic and Restrictive Trade Practice Act)-1969 बनाया गया है।
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