संयत मुनिजी व मुनिमंडल शुक्रवार को गुलमोहर काॅलोनी से विहार कर स्टेशन रोड स्थानक में मंगल प्रवेश करेंगे। मुनिमंडल के मोहसागर भवन में सुबह 9 से10 बजे तक व्याख्यान होंगे।
अभिवृत्ति का अर्थ क्या है? अभिवृत्ति के प्रकार और विशेषताएं
अभिवृत्ति (Attitude) चीजों का एक खास ढंग से मूल्यांकन करने की विद्वतापूर्ण प्रवृत्ति है! इसमें लोगों, वस्तुओं, मुद्दों या घटनाओं का मूल्यांकन शामिल है! ऐसे मूल्यांकन अक्सर सकारात्मक या नकारात्मक हो सकते हैं पर वे कभी-कभी अनिश्चित भी होते हैं! इसलिए हम किसी भी व्यक्ति के लिए मिली-जुली अनुभूति की बात करते हैं! अभिवृत्ति एक व्यक्ति, स्थान या घटना के प्रति सकारात्मक या नकारात्मक होने की अभिव्यक्ति है!
अभिव्यक्ति (abhivriti) मनुष्य की वह सामान्य प्रतिक्रिया है जिसके द्वारा वस्तु का मनोवैज्ञानिक ज्ञान होता है!
अभिवृत्ति की प्रकृति एवं विशेषताएं (abhivritti ki visheshtayen) –
मनोवृत्ति या अभिवृत्ति को व्यवहार से पूर्व की मनोदैहिक अवस्था या प्रवृत्ति कहा जाता है! इसकी निम्न विशेषताएं हैं-
(1) किसी भी विशेष वस्तु, व्यक्ति समूह, संस्था मूल्य अथवा मान्यता के प्रति बनी हुई अभिव्यक्ति इन सभी के प्रति व्यक्ति का कैसा संबंध है, यह स्पष्ट करती है!
(2) कोई भी अभिव्यक्ति जन्मजात नहीं होती बल्कि वातावरण में उपलब्ध अनुभवों के आधार पर अजित की जाती है!
(3) किसी वस्तु के प्रति व्यक्ति की स्वाभविक तत्परता जिसे अभिव्यक्ति के नाम से जाना जाता है उसका स्वरूप बहुत ही स्थायी होता है!
(4) अभिवृत्तियों के विकास में किसी अभिप्रेरणा का हाथ होता है जबकि आदत आदि अन्य प्रवृत्तियों में यह आवश्यक नहीं!
(5) अभिवृत्ति की चरम सीमा यह इंगित करती है कि अभिव्यक्ति किस सीमा तक सकारात्मक या नकारात्मक है!
अभिवृत्ति के प्रकार (Types of Attitude in hindi) –
अभिवृत्ति (मनोवृत्ति) को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है – व्यक्त (प्रत्यक्ष) और अंतर्निहित (अप्रत्यक्ष) दोनों में मौलिक अंतर यह है कि जहां मनुष्य व्यक्त मनोवृत्ति का निर्माण के प्रति सजग रहता है अर्थात उसे अपनी मनोवृत्ति का ज्ञान रहता है. वहीं अंतर्निहित (अप्रत्यक्ष) मनोवृत्ति के प्रतिभा सचेत नहीं रहता बल्कि भूतकाल की यादें इस मनोवृत्ति के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है!
व्यक्त या प्रत्यक्ष मनोवृत्तियॉं (Explicit Attitude in hindi) –
इस मनोवृत्ति की खास बात यह है कि व्यक्ति इस मनोवृति के प्रति सचेत रहता है अर्थात ऐसी मनोवृत्तियॉं सोच समझकर बनाई जाती है! व्यक्ति अपने आसपास की घटनाओं से अवगत रहता है और उन्हीं से प्रभावित होकर वह एक खास दिशा में विशिष्ट तरीके से सोचता है या फिर व्यवहार करता है! उसके इसी व्यवहार में उसकी मनोवृति परिलक्षित होती है और इस बात का भी संज्ञान उसे रहता है!
शरीर की प्रवृत्ति शुभ-अशुभ दोनों होती है : संयतमुनि
जीव अनादिकाल से शरीर प्रवृत्ति के प्रकार पा रहा है, जब तक शरीर है तब तक शरीर की प्रवृत्ति है और जब तक कर्मों का बंध होता रहता है। शरीर की प्रवृत्ति शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकार की होती है। जब काया की अशुभ प्रवृत्ति हो तो अशुभ कर्म एवं शुभ प्रवृत्ति हो तो शुभ कर्म का बंध होता है।
यह बात प्रवृत्ति के प्रकार संयतमुनिजी ने काटजू नगर स्थित समता भवन में कही। उन्होंने कहा चिंतन करें कि हमारी काया की शुभ प्रवृत्ति अधिक होती है या अशुभ प्रवृत्ति। यह अशुभ प्रवृत्ति रूपी शास्त्र (भाव शस्त्र) हम स्वयं पर चलाते हैं। बरछी, भाला आदि द्रव्य शस्त्र हैं लेकिन भाव शस्त्र शस्त्र हैं यह पता नहीं चलता इस भाव शस्त्र को जानना आवश्यक है। हम द्रव्य शस्त्रों से उतना कर्मों का बंध नहीं करते जितना भाव शस्त्र से करते हैं। चार प्रकार के भाव शस्त्रों में से तीसरा शस्त्र है काया की अशुभ प्रवृत्ति, शस्त्र हम मन से चलाएं या बिना मन से तो भी हानि होती है। हम शस्त्र (शुभ प्रवृत्ति) मन से चलाएं या बिना मन से तो भी लाभ ही होता है। किसी से झगड़ा होता है तो पहले मन का शस्त्र फिर वचन का शस्त्र व काया का शस्त्र चालू हो जाता है। जीव ने इस काया को शस्त्र का भंडार बना रखा है। शरीर को व्यसन में लगाना भी शस्त्र है। इसलिए बुरी प्रवृत्तियों को छोड़ना है। काया की अशुभ प्रवृत्ति को छोड़ेंगे तो यह शरीर शास्त्र बन जाएगा। अपने दुर्गुणों को दुर्गुण समझेंगे तो ही इन्हें छोड़ सकते हैं। यदि दुर्गुणों को सदगुण समझ लिया तो दुर्गुणों को नहीं छोड़ सकेंगे।
Sanskritik aur Samajik Anusandhan
abstract
प्रस्तुत शोध आलेख में मानवीय प्रवृत्तियों के उन पक्षों की विवेचना करने का प्रयास किया गया है जिससे मानवता के उच्च शिखर पर पहुँचने का व्यावहारिक स्वरुप, प्रामाणिकता से मुखरित किया जा सके । मनुष्य जीवन की प्राप्ति होना व्यक्ति के लिए एकांगी स्थिति का प्रतीक नहीं, लेकिन इस बहुमूल्य जीवन का सर्वांगीण विकास करने की इच्छा शक्ति में जीवन - दर्शन, जीवन - उत्साह एवं जीवन - लक्ष्य का समायोजन बहुआयामी चिन्तन का विराट स्वरुप है । स्वयं को धरती पर विचरण करने की मंसा से उपर उठकर निजी जीवन की मनोवृत्ति से श्रेष्ठ कर्म करने की आत्मिक स्थिति, व्यक्ति को सत्कर्म की प्रवृत्ति का अनुसरण करने के लिए अभिप्रेरित करती है । इस विषय की मौलिकता का स्तर उस समय बढ़ जाता है जब आत्मा के अजर, अमर एवं अविनाशी स्वरुप की अनुभूति पूर्णतया अमरत्व के सन्दर्भ में होती है और जीवन की गतिशीलता जो आत्मा के लिए नित्य, सत्य एवं प्रकाशवान है अर्थात् गुण, शक्ति और जीवन मूल्य की प्राप्ति हेतु पुरुषार्थ की व्यावहारिकता में स्वयं को समर्पित कर देना है । जीवन की सहजता, सरलता एवं विनम्रता का स्वरुप, आत्म ज्ञान के व्यवहार में आने से सुनिश्चित हो जाता है जो व्यक्ति को आत्मिक उच्चता की प्राप्ति हेतु सत्कर्म की ओर अभिमुखित करता है । श्रेष्ठता की प्रवृत्ति के प्रकार प्रवृत्ति में रूपांतरण हो जाने के पश्चात् जीवन में पवित्रता का ‘ अनुसरण होने के साथ - साथ अनुकरण भी ’ नियमित जीवन की सूक्ष्म स्थितियों में समाविष्ट हो जाता है । मनुष्य के द्वारा जीवन दर्शन के अध्यात्म को स्वीकार कर लेना इस सत्य की पुष्टि है जिसमें व्यक्तिगत जीवन में सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक संदर्भो की व्यावहारिक संकल्पना के प्रति गहरी आस्था का प्रमाण प्रस्तुत किया गया है । इस प्रकार शोध आलेख का केन्द्रीय भाव मानव जीवन के द्वारा ज्ञान एवं कर्मेन्द्रियों से अच्छा देखना, अच्छा बोलना, अच्छा सुनना, अच्छा सोचना एवं अच्छा कर्म करना है क्योंकि स्वयं के सर्वांगीण विकास हेतु सत्कर्म की प्रवृति का अनुसरण करने के अतिरिक्त शेष कोई विकल्प नहीं है । आत्मा के द्वारा ‘ श्रेष्ठ संकल्प एवं श्रेष्ठ विकल्प ’ को उसकी ऊंचाई से निर्धारित कर लिया गया है जो जीवन की व्यावहारिकता को सर्वांगीण विकास से सम्बद्ध करके स्वीकारने में अपने विश्वास को व्यक्त करते हुए आत्मा के अमरत्व को ‘आत्म स्वरुप’ की श्रेष्ठ स्थिति के लिए प्रमुख रूप से उत्तरदायी मानते हैं ।
अधिकतम अंक: 5
न्यूनतम अंक: 1
मतदाताओं की संख्या: 78